नजीबाबाद शहर स्थित सुलताना डाकू के नाम से बदनाम यह ऐतिहासिक किला जिसका अतीत कुछ इस प्रकार हैं.. स्वतंत्र पत्रकार तैय्यब अली की रिपोर्ट
बिजनौर के नजीबाबाद शहर स्थित सुलताना डाकू के नाम से बदनाम यह ऐतिहासिक किला जिसका अतीत कुछ इस प्रकार हैं:-
यह एक एसी ऐतिहासिक इमारत है जहां के इंटीरियर डिज़ाइन वास्तुकला पुराने जीवन स्तर और रोहिल्ला पठानो के जीवन जीने के तरीके के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिलता है
नवाब नजीब खान उर्फ नजीबुद्दौला के द्वारा बनवाया गया पत्थरगढ किला इस किले का हर पत्थर एक कहानी कहता है सैकड़ों साल पुराने इतिहास से आपका परिचय कराता है किले के समय के हाथो बचे अवशेष सचेत कर रहे है की समय किसी का सगा नहीं होता कल समय नजीबुद्दौला का था उसके बाद बेटे जाबिता खान का बाद मे किसी और ने यहां राजपाट चलाया होगा
दुनिया के इस रंगमंच पर हर पात्र अपना अपना रोल अदा कर हमेशा के लिए नैपथ्य में चला जाता है कभी पर्दा गिरता है कभी पर्दा उठता है समय समय के अलग अलग कलाकार होते है और सबकी अलग अलग कहानी भविष्य मे कोई और इस मंच पर अपना अभिनय दिखाएगा यह दुनिया बस यूही चलती रहती है इस आलीशान भव्य किले कोभी नहीं मालूम होगा कि पहले भी कितने आये और कितने चले गए अवशेष यानी खंडहर हमे इसी ग़लतफ़हमी से बचने का आग्रह करते है
इस किले के गेट पर बैठ कर इस किले के अतीत के पन्ने पलटते हुए दिमाग मे वो समय का चक्र चलने लगता है जब कभी यहां पश्चिमी उत्तरप्रदेश के सब से धनी पठान नजीबुद्दौला के राजपाट में यहा रौशनी जगमग चमकती होगी समय देखो यह किला आज वीरान है अफसोस नजीबुद्दौला का कोई भी वंशज आज नजीबाबाद मे मौजूद नही है कल तक जो अट्टालिकाएँ थी आज वह खंडहर है यकीनन राजा हो या महाराजा हो या हो कोई ईमारत एक दिन सब को मिट जाना है
इस किले का हर पत्थर हर लखोरी ईट और इस खंडहर का हर खंड गवाह हैं कि वीराने से पहले यहां कभी खूब रौनके और खूब बहारें हुआ करती थी मेला सा लगता होगा सन्नाटा नहीं यहां ज़िन्दगी जिया करती थी वक्त के साथ इमारतें सिकुड़ गई हर दीवारें बिगड़ गई, अब ख़ाली टूटे दरवाजों का शोर हैं जहां कभी दावतें हुआ करती थी जिसने बनाया था कभी शान से वह तो अब चले गए अब कोई पलट कर भी नहीं देखता जैसे अब कोई वास्ता न हो इनसे यही तो इंसान की भी फितरत हैं जब ज़रूरत निकल जाती हैं तो रिश्ते भी टूट जाते हैं जब बूढ़े हुए माता पिता को छोड़ देते हैं लाचार तो इन पत्थरों की क्या औकात यह तो बेचारे बेजान पत्थर की एक इमारत थी जोकि अब खंडहर हैं।।
जब जब यहां पहुच कर अतीत कि खुश्बू लेने का मन होता है तो पहली फुर्सत में यहां से जुडी नजीबुद्दौला से लेकर सुलताना डाकू व उस के परिवार के किस्से कहानियों को जानने की इच्छा होती है शायद सुनने मैं अजीब लगे, लेकिन में यहा पहुचकर यहां के खण्डरों में अपनापन महसूस करता हूँ किसी भी प्रकार की जल्दबाज़ी शोर-शराबे की जगह घायल इतिहास कि कहानी सुनाने के लिए किसी श्रोता के इंतज़ार में बैठ जाता हूँ और जब कभी यहां का इतिहास सुनने वाला कोई नहीं होता तब अपने आप इतिहास कि मूक भावनाओं को समझने की कोशिश में लगा रहता हूँ बस अफ़सोस होता है कि आज की युवा पीड़ी को अपने इतिहास को पढ़ने सुनने की बिलकुल भी परवाह नहीं है
~तैय्यब अली “स्वतंत्र लेखक”